शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

गुणों की प्रशंसा

!!!---: गुणों से सुन्दरता :---!!!
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"गुणो भूषयते रुपं शीलं भूषयते कुलम् ।
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम् ।।"

भावार्थ :----गुणों से रुप सुन्दर लगता है, शील कुल को चार चाँद लगा देता है, सिद्धि से विद्या सुशोभित होती है और भोग धन को अलंकृत कर देता है।


विमर्श :―गुण मनुष्य के रुप को शोभायमान बना देते हैं :---

"पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते ।" (रघुवंश ३।६२)
गुण सर्वत्र अपना प्रभाव जमा देते हैं।

"गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा ।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः ।।'
(मृच्छक० ४।२२)

मनुष्य को सदा दया, दाक्षिण्य आदि गुणों की प्राप्ति में प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि गुणी दरिद्र भी गुणहीन धनिकों से श्रेष्ठ होता है। वैदिक संस्कृत

शील कुल को अलंकृत करता है। शील का अर्थ है :― चरित्र, उत्तम स्वभाव और आचरण, नैतिकता, सज्जीवन, शुचिता, ईमानदारी, वैरत्याग, दान, दया आदि।

"शीलं परं भूषणम् ।" (भर्तृहरि नीतिशतकम् ७८)
शील सबसे बड़ा आभूषण है।

जो मनुष्य शीलरूपी आभूषण से अलंकृत है, उसके घर को भी चार चाँद लग जाएँगे। शिशु-संस्कृतम्

सिद्धि से विद्या सुशोभित होती है, सिद्धि का अर्थ है :--- सफलता,  मुक्ति। विद्या वही उत्तम है जो आवागमन के चक्र से छुड़ाकर मुक्ति की प्राप्ति कराये। कहा भी है :---

'सा विद्या या विमुक्तये' ।"
 विद्या वही है जो मुक्ति प्राप्त करानेवाली हो।

सिद्धि का अर्थ बुद्धि भी होता है। बुद्धि से विद्या सुशोभित होती है। यदि मनुष्य के पास बुद्धि नहीं है तो 'साक्षरा विपरीतत्वे भवन्ति राक्षसा ध्रुवम्' 

'साक्षराः' विपरीत बुद्धि होने पर 'राक्षसाः' बन जाते हैं, अतः विद्या की सफलता बुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति में है।
अलौकिक शक्तियाँ, योग-सिद्धियाँ भी विद्या को सुभूषित करती हैं। लौकिक संस्कृत

धन की शोभा दान और भोग में है, सञ्चय करने में नहीं। 

भामाशाह ने अपने जीवन की सारी कमाई महाराणा प्रताप के चरणों में अर्पित कर दी। ऐसा करके भामाशाह ने अपने देश की सेवा तो की ही, वह स्वयं अजर और अमर बन गया।

योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

सोमवार, 27 जुलाई 2020

शास्त्रों को पढ़ने का उपयोग

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"पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः ।
आत्मनं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा ।।"

भावार्थ :---जो ऋग्वेदादि चारों वेद और अनेक शास्त्रों का गहन अध्ययन करके भी शास्त्रों के प्रतिपाद्य आत्मा और परमात्मा को नहीं जानते, आत्मज्ञान से शून्य हैं, उनका जीवन ठीक ऐसा ही है जैसे रसदार शाक में घूमनेवाली कलछी को उसके स्वाद का ज्ञान नहीं होता।


विमर्श :----सारे वेदमन्त्रों और सभी धर्मशास्त्रों का तात्पर्य परमात्मा में है। वेदादि शास्त्र आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से भरे पड़े हैं। सभी शास्त्र पुकार-पुकार कर उस ब्रह्म को जानने का सन्देश दे रहे हैं। वेद ने तो यहाँ तक कह दिया―

"यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ।" (ऋग्वेद १।१६४।३९)
जो सर्वोत्पादक परमेश्वर को नहीं जानता, उसे वेदपाठ से भी क्या लाभ होगा ?

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

बन्धन-मोक्ष का कारण

“बन्धाय विषयाSSसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः॥”
(चाणक्य-नीतिः–१३.११)
बुराइयों में मन को लगाना ही बन्धन है और इनसे मन को हटा लेना ही मोक्ष का मार्ग दिखाता है । इस प्रकार यह मन ही बन्धन या मोक्ष देनेवाला है।
“धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
जन्म-जन्मनि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम् ।।”
(चाणक्य-नीतिः–०३.२०)
जिस मनुष्य को धर्म, काम-भोग, मोक्ष में से एक भी वस्तु नहीं मिल पाती, उसका जन्म केवल मरने के लिए ही होता है
“अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः॥”
(चाणक्य-नीतिः–०५.१८)
निर्धन व्यक्ति धन की कामना करते हैं और चौपाये अर्थात पशु बोलने की शक्ति चाहते हैं । मनुष्य स्वर्ग की इच्छा करता है और स्वर्ग में रहने वाले देवता मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं और इस प्रकार जो प्राप्त है सभी उससे आगे की कामना करते हैं ।
“श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्॥”
(चाणक्य-नीतिः–६.१)
सुनकर ही मनुष्य को अपने धर्म का ज्ञान होता है, सुनकर ही वह दुर्बुद्धि का त्याग करता है । सुनकर ही उसे ज्ञान प्राप्त होता है और सुनकर ही मोक्ष मिलता है ।
“धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्॥”
(चाणक्य-नीतिः–१३.९)
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में से जिस व्यक्ति को एक भी नहीं मिल पाता, उसका जीवन बकरी के गले के स्थान के समान व्यर्थ है।
“यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु ।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटा भस्मलेपनैः॥”
(चाणक्य-नीतिः–१५.१)
जिस मनुष्य का हृदय सभी प्राणियों के लिए दया से द्रवीभूत हो जाता है, उसे ज्ञान, मोक्ष, जटा, भष्म – लेपन आदि से क्या लेना ।

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

करवा चौथ अवैदिक है

करवा चौथ अवैदिक है

"पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी ।आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् ।।"(चाणक्य-नीतिः--१७.०९)

अर्थः--जो स्त्री पति की आज्ञा के विना भूखों मरने वाला व्रत रखती है, वह पति की आयु को घटाती है और स्वयं मंहान् कष्ट भोगती है ।

विश्लेषणः---

महर्षि मनु ने भी भूखे रहने वाले व्रतों का खण्डन किया है---

"पत्यौ जीवति या तु स्त्री उपवासं व्रतं चरेत् । आयुष्यं हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति ।।" (मनु स्मृतिः---५.१५५)


अर्थः---जो स्त्री पति के जीवित रहने पर व्रत या उपवास करती है, वह अपने पति की आयु को घटाती है और स्वयं नरक में जाती है ।

स्त्रियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं और इसे अत्यन्त शुभ मानती हैं परन्तु कबीरदास ने इसका प्रबल खण्डन किया  है---

"राम नाम को छाँडिके राखै करवा चौथि । सो तो ह्वैगी सूकरी तिन्है राम सो कौथि ।।"

website पर पढें ।

शनिवार, 8 जुलाई 2017

मनुष्य का व्यर्थ जीवन

 मनुष्य का व्यर्थ जीवन
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"धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोSपि न विद्यते ।
अजागलस्तनस्यैव तस्य जन्म निरर्थकम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--१३.०९)
अर्थ :---जिस मनुष्य के जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष---इन चार पुरुषार्थों में से एक भी नहीं है, उसका जन्म ऐसे ही व्यर्थ और निष्फल है, जैसे बकरी के गले में लटकने वाले स्तन, जिनसे न तो दूध निकलता है और न गले की शोभा ही होती है ।

गुरुवार, 29 जून 2017

धर्म का चिन्तन

"नाहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत् ।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ।।"
(चाणक्य-नीतिः--१२.१८)

अर्थः---बुद्धिमान् मनुष्य को अपने आहार , भोजन के सम्बन्ध में सोच-विचार नहीं करना चाहिए, उसे तो केवल धर्म का ही चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य का आहार तो उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न हो जाता है ।

मंगलवार, 27 जून 2017

बगुले की शिक्षा

बगुले की शिक्षा

"इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः ।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--०६.१६)