!!!---: जैसी भावना, वैसी सिद्धि :---!!!
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"देवे तीर्थे द्विजे मन्त्रे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।"
(सु.र.भा. )
अर्थः---देवता, तीर्थस्थल, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, वैद्य और गुरु---इनके प्रति मनुष्य की जैसी भावना होती है, वैसी ही उसको सिद्धि (सफलता) प्राप्त होती है ।
विमर्शः---हिन्दी में एक कहावत प्रसिद्ध हैः---"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी ।"
यह श्लोक मन की भावना, आस्था एवं विश्वास की दृढता को भली-भाँति प्रदर्शित करता है ।
(1.) देवः---देवता, भगवान्, स्वर्ग, नरक---ये सभी मानव-मन (बुद्धि) की परिकल्पना पर आधारित है । वैदिक युग में प्राकृतिक शक्तियों को देव रूप में पूजते थे । यथा---वर्षा के देवता इन्द्र, जल के देवता वरुण, झँझावात के देवता रुद्र आदि । इन देवों के प्रति आपके मन में जैसी भावना होगी, फल की प्राप्ति ठीक उसी प्रकार होगी । कोई व्यक्ति सांसारिक फल के लिए देव-आराधना करता है, कोई आत्मिक फल की प्राप्ति के लिए और कोई परलोक की प्राप्ति के लिए ईश्वराधना करता है । व्यक्ति (भक्त) की भावना के अनुसार उसे फल की प्राप्ति हो जाती है ।
(2.) तीर्थः---तीर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैः---गुरुकुल, गुरु, ब्राह्मण, यज्ञशाला, पूजनीया विदुषी स्त्री , विद्वान् पुरुष आदि । तीर्थ वे हैं, जहाँ किसी महान् विदवान् पुरुष या देवों का जन्म हुआ हो .या जहाँ इन देवों ने विद्या की प्राप्ति की हो । जैसे---अयोध्या, काशी, मथुरा, प्रयाग, करतारपुर, टंकारा, गंगोत्री, बदरिकाश्रम आदि । इन तीर्थों के दर्शन से हमें उत्तम प्रेरणा मिलती है । किन्तु जो व्यक्ति इन तीर्थों के प्रति जैसी भावना रखेगा, उसे उसी प्रकार के फल प्राप्त होंगे । इन में विभिन्न प्रकार के लोग जाते हैं, उनमें कोई भक्त होता है, कोई शिष्य होता है, कोई पुरातत्त्वविद् होता है, कोई इतिहासकार होता है, कोई लेखक, कोई कवि, कोई विज्ञानवेत्ता । इन सबको अलग-2 फल की प्राप्ति होती है ।
मन्त्रः---यज्ञ में मन्त्रोच्चारणपूर्वक आहुति दी जाती है । इसमें भावना का बडा महत्त्व है । इसमें अपूर्व की प्राप्ति होती है । इसमें इहलोक और परलोक की भावना से लोग आहुति देते हैं । कोई धन, पुत्र, कलत्र, विद्या की प्राप्ति के लिए आहुति देता है, तो कोई परमात्म की प्राप्ति के लिए आहुति देता है ।
गुरुः---गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, अनुशासित करता है और शुभ आचरण व व्यवहार सिखाता है । किन्तु गुरु की शिक्षा का उतना ही अंश (भाग) शिष्य को प्राप्त हो पाता है, जितने की उसके मन में भावना होती है । भावना के बल पर ही एकलव्य धनुर्वेद सीख पाया, भावना के बल पर ही कर्ण भी विद्या सीख गया और भावना के बल पर ही अर्जुन विश्वविख्यात धनुर्धारी बन सका ।
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