बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

परिवार का सुख

!!!---: परिवार की परिभाषा :---!!!
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"ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः ।
तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निर्वृत्तिः ।."
(चाणक्य-नीतिः--2.4)
शब्दार्थ :----(पुत्राः) पुत्र, (ते) वे, (ये) जो, (पितुः) पिता के, (भक्ताः) भक्त हैं, (पिता) पिता, (सः) वह, (तु) तो, (पोषकः) पालन-पोषण करना, (मित्रम्) मित्र, (तत्) वह, (यस्य) जिसका, (विश्वासः) विश्वास, (भार्याः) स्त्री, (सा) वह, (निर्वृत्तिः) सुख की प्रा्प्ति ।
अर्थ :---- पुत्र वही है जो पिता का भक्त हो, पिता वह है जो पुत्रों का पालन-पोषण करता हो, मित्र वह है जिसपर विश्वास हो और पत्नी वह है, जिससे सुख प्राप्त हो । विमर्श :----पुत्र वही है जो पिता का भक्त हो । श्लोकः--- "प्राप्यापि महतीं बुद्धिं वर्तेत पितुराज्ञया । पुत्रस्य पितुराज्ञापि परमं भूषणं स्मृतम् ।।" (शुक्रनीतिसारः--2.38) अर्थः---अत्यन्त उन्नत अवस्था, उन्नति के शिखर पर पहुँचकर भी पुत्र पिता की आज्ञानुसार ही चले, क्योंकि पुत्र के लिए पिता की आज्ञा का पालन करना परम भूषण है । "तत्कर्म नियतं कुर्याद्येन तुष्टो भवेत् पिता । तन्न कुर्याद्येन पिता मनागपि विषीदति ।।" (शुक्रनीति---2.44) अर्थः----जिस कार्य से पिता प्रसन्न हो, उस कार्यको नियत रूप से अवश्य करना चाहिए और जिस कार्य से पिता को थोडा भी दुःख हो, उसे कदापि नहीं करना चाहिए । एक अन्य परिभाषाः---- -------------------------- "यः प्रीणयेत् सुचरितैः पितरं स पुत्रो यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम् । तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यदेतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ।।" अर्थः---जो अपने उत्तम आचरणों से पिता को प्रसन्न करे, वस्तुतः वही पुत्र है । जो सदा पति का कल्याण चाहे, वही पत्नी है । जो सुख और दुःख में मित्र के साथ समान व्यवहार रखे, वही मित्र हैः---संसार में ये तीनों बातें पुण्य-कर्माओं को ही नप्राप्त होती है ।


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