बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

मित्र पर विश्वास कभी नहीं करना चाहिए

!!!---: मित्र पर विश्वास कभी नहीं करना चाहिए :---!!!
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"न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत् ।
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--2.6)

शब्दार्थ :----(कुमित्रे) खोटे मित्र पर, (न विश्वसेत्) विश्वास न करें, (च) और, (मित्रे) मित्र पर (चापि) और भी, (कदाचित्) किसी समय (कुपितम्) क्रोधित , (सर्वम्) सब, (गुह्यम्) गुप्त बातों को, (प्रकाशयेत्) प्रकट कर दे ।

अर्थ :----कुमित्र पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए, सुमित्र पर भी विश्वास न करें, क्योंकि यदि कभी वह रुष्ट (क्रोधित) हो गया तो आपके सारे रहस्यों को दूसरों के सामने प्रकट कर देगा ।

विमर्श  :----अथर्ववेद में भी ऐसा ही कहा गया हैः--

"अभयं मित्रादभयममित्रात् ।" (अथर्ववेदः--19.15.6)

अर्थः---हमें मित्र से निर्भयता प्राप्त हो, हमें अमित्र (शत्रु) से भी अभयता प्राप्त हो ।

वेद में पहले मित्र से निर्भय होने की कामना की गई है । मित्र से निर्भय होने की कामना इसीलिए की गई है कि वह कभी कुपित होने पर सारे भेदों को प्रकट कर सकता है ।।


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रविवार, 21 फ़रवरी 2016

परोपकारी जन

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"परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम् ।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ।।"
(चाणक्य-नीतिः--17.14)

शब्दार्थ :----(येषाम्) जिनका, (सताम्) सज्जनों के, (हृदये) हृदय में, (परोपकरणम्) परोपकार करने की भावना, (जागर्ति)सदा दाग्रत रहती है, (विपदः) आपत्तियाँ, (नश्यन्ति) नष्ट हो जाती हैं, (पदे पदे)  पग-पग पर, (सम्पदः स्युः) सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।
अर्थः---जिन सज्जनों के हृदय में परोपकार की भावना जाग्रत रहती है, उनकी आपत्तियाँ-विपत्तियाँ, आपदाएँ दूर हो जाती हैं और पग-पग पर उन्हें सम्पत्तियाँ और सफलताएँ प्राप्त होती हैं ।

विमर्श :---परोपकार ही जीवन है । अपना पेट तो पशु-पक्षी भी भर लेते हैं, मनुष्य को उससे पृथक् होना चाहिए । यदि केवल पेट पालना ही मनुष्य-जीवन का उद्देश्य हो तो मानवता क्या हुई । स्वार्थी मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैः---

""परोपकारशून्यस्य धिङ् मनुष्यस्य जीवितम् ।
जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ।।"

अर्थः---परोपकार-शून्य मनुष्य के जीवन को धिक्कार है, पशु सदा जीते रहते हैं, मरने के बाद भी जिनका चमडा भी उपकार में लगता है ।

किसी ने ठीक ही कहा है---

"जिस शरीर से धर्म नहीं हुआ , यज्ञ न हुआ और परोपकार न हो सका, उस शरीर को धिक्कार है, ऐसे शरीर को पशु-पक्षी भी नहीं छूते ।"


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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

जैसी भावना, वैसी सिद्धि

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"देवे तीर्थे द्विजे मन्त्रे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।"
(सु.र.भा. )

अर्थः---देवता, तीर्थस्थल, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, वैद्य और गुरु---इनके प्रति मनुष्य की जैसी भावना होती है, वैसी ही उसको सिद्धि (सफलता) प्राप्त होती है ।

विमर्शः---हिन्दी में एक कहावत प्रसिद्ध हैः---"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी ।" यह श्लोक मन की भावना, आस्था एवं विश्वास की दृढता को भली-भाँति प्रदर्शित करता है । (1.) देवः---देवता, भगवान्, स्वर्ग, नरक---ये सभी मानव-मन (बुद्धि) की परिकल्पना पर आधारित है । वैदिक युग में प्राकृतिक शक्तियों को देव रूप में पूजते थे । यथा---वर्षा के देवता इन्द्र, जल के देवता वरुण, झँझावात के देवता रुद्र आदि । इन देवों के प्रति आपके मन में जैसी भावना होगी, फल की प्राप्ति ठीक उसी प्रकार होगी । कोई व्यक्ति सांसारिक फल के लिए देव-आराधना करता है, कोई आत्मिक फल की प्राप्ति के लिए और कोई परलोक की प्राप्ति के लिए ईश्वराधना करता है । व्यक्ति (भक्त) की भावना के अनुसार उसे फल की प्राप्ति हो जाती है । (2.) तीर्थः---तीर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैः---गुरुकुल, गुरु, ब्राह्मण, यज्ञशाला, पूजनीया विदुषी स्त्री , विद्वान् पुरुष आदि । तीर्थ वे हैं, जहाँ किसी महान् विदवान् पुरुष या देवों का जन्म हुआ हो .या जहाँ इन देवों ने विद्या की प्राप्ति की हो । जैसे---अयोध्या, काशी, मथुरा, प्रयाग, करतारपुर, टंकारा, गंगोत्री, बदरिकाश्रम आदि । इन तीर्थों के दर्शन से हमें उत्तम प्रेरणा मिलती है । किन्तु जो व्यक्ति इन तीर्थों के प्रति जैसी भावना रखेगा, उसे उसी प्रकार के फल प्राप्त होंगे । इन में विभिन्न प्रकार के लोग जाते हैं, उनमें कोई भक्त होता है, कोई शिष्य होता है, कोई पुरातत्त्वविद् होता है, कोई इतिहासकार होता है, कोई लेखक, कोई कवि, कोई विज्ञानवेत्ता । इन सबको अलग-2 फल की प्राप्ति होती है । मन्त्रः---यज्ञ में मन्त्रोच्चारणपूर्वक आहुति दी जाती है । इसमें भावना का बडा महत्त्व है । इसमें अपूर्व की प्राप्ति होती है । इसमें इहलोक और परलोक की भावना से लोग आहुति देते हैं । कोई धन, पुत्र, कलत्र, विद्या की प्राप्ति के लिए आहुति देता है, तो कोई परमात्म की प्राप्ति के लिए आहुति देता है । गुरुः---गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, अनुशासित करता है और शुभ आचरण व व्यवहार सिखाता है । किन्तु गुरु की शिक्षा का उतना ही अंश (भाग) शिष्य को प्राप्त हो पाता है, जितने की उसके मन में भावना होती है । भावना के बल पर ही एकलव्य धनुर्वेद सीख पाया, भावना के बल पर ही कर्ण भी विद्या सीख गया और भावना के बल पर ही अर्जुन विश्वविख्यात धनुर्धारी बन सका ।

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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

!!!---: परिश्रमी दुःखों से दूर रहता है :---!!!

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उद्योगे नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पातकम् ।
मौने च कलहो नास्ति नास्ति जागरिते भयम् ।।
(चाणक्य-नीतिः---3.11)
शब्दार्थ :----(उद्योगे) परिश्रम करने पर, (दार्द्र्यम्) गरीबी, (न अस्ति) नहीं रहती (जपतः) ईश्वर के ओम् नाम का जप करने से, (पातकम् न) पाप नहीं रहता, (च) और (मौने) चुप रहने पर, (कलहः) झगडा, (जागरिते) जागते रहने पर (भयम्) डर ।
अर्थ :-----पुरुषार्थी के पास दरिद्रता (गरीबी) नहीं फटकती , जप करने वाले के पास पाप नहीं रहता, मौन (चुप) रहने पर लडाई-झगडा नहीं होता और जागने वाले को भय नहीं रहता ।
विमर्श :----मेहनती व्यक्ति कभी असफल नहीं होता, कभी दुःखी नहीं रहता, कभी गरीब नहीं रहता, किसी कवि ने ठीक कहा हैः-- "उद्योगः खलु कर्त्तव्यः फलं मार्जारवद्भवेत् । जन्मप्रभृति गौर्नास्ति पयः पिबति नित्यशः ।।" अर्थः---लगातार परिश्रम करना चाहिए, पुरुषार्थ का फल बिलाव के समान प्राप्त होता है, उसके पास जन्म से गौ नहीं है, फिर भी प्रतिदिन दूध पीता है । जप करने वाला पापी नहीं होता, अथवा यह कहना चाहिए कि ईश्वर के भक्त को कोई पाप नहीं लगताः--- जप की परिभाषा देखिएः--- "जकारो जन्मविच्छेदः पकारः पापनाशकः । तस्माज्जप इति प्रोक्तो जन्मपापविनाशकः ।।" अर्थः---"जप" के जकार का अभिप्राय---जकार जन्म का विच्छेद करने वाला अर्थात् आवागमन से छुडानेवाला है "जप" के पकार का अर्थ----और "पकार" पापनाशक है । जन्म और पाप का विनाशक होने से इसे "जप" कहते हैं । परमात्मा का सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ और मुख्य नाम "ओम्" है, अतः जप "ओम्" का ही करना चाहिए । एक अन्य स्थल पर आचार्य चाणक्य स्वयं कहते हैंः----- "ओंकारशब्दो विप्राणां यस्य राष्ट्रे प्रवर्तते । स राजा हि भवेद् योगी व्याधिभिश्च न पीड्यते ।।" (चा.नी. 4.9) अर्थः---जिस राजा के राष्ट्र में ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित ओंकार का नाद गूँजता है, वही राजा योगी होता है और व्याधियों (रोगों) से पीडित नहीं होता ।
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रविवार, 14 फ़रवरी 2016

साधु की संगति सदैव सुखदायक



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"दर्शनध्यानसंस्पर्शैर्मत्सी कूर्मी च पक्षिणी ।
शिशुं पालयते नित्यं तथा सज्जनसंगतिः ।।"
(चाणक्य-नीतिः---4.3)
शब्दार्थ :----(मत्सी) मछली, (कूर्मी) कछवी, (च) और, (पक्षिणी) मादा पक्षी, (दर्शन-ध्यान-स्पर्शन) दर्शन, ध्यान और स्पर्श से, (शिशुम्) अपने-अपने बच्चे का, (नित्यम्) सदा, (पालयते) पालती है (तथा) उसी प्रकार, (सज्जनसंगतिः) श्रेष्ठ पुरुषों की संगति ।

अर्थ :---जैसे मछली दर्शन से, कछवी ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने-अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है, ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषों की संगति मनुष्यों का पालन-पोषण करती है ।
विमर्श :-----सत्संग की अति उत्तम महिमा का वर्णन आचार्य भर्तृहरि ने इन शब्दों में की हैः--- "जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यम्,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति , सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।।" (नीति-शतकम --22) अर्थः---सत्संगति बुद्धि की मन्दता को दूर करत है, वाणी में सत्य संचार करती है, सम्मान को बढाती है और उच्चावस्था प्रदान करती है, पाप को दूर करती है, चित्त (मन) को आह्लादित (खुश) करती है और चारों दिशाओं में कीर्ति (यश) नाम को फैलाती है । भला बताओ, वह कौन-सी भलाई है, जो सज्जन की संगति से प्राप्त नहीं होती ।



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