गुरुवार, 26 मई 2016

दुर्जन सज्जन कभी नहीं बन सकता



!!!---: दुर्जन सज्जन कभी नहीं बन सकता :---!!!
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"न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः ।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति ।।"
(चाणक्य-नीतिः---11.06)

अर्थः---यह ध्रुव सत्य है कि अनेक प्रकार से समझाने और सिखाने पर भी दुष्ट मनुष्य सज्जन नहीं बन सकता, जैसे जड सहित दूध और घी से सींचे जाने पर भी नीम का वृक्षा मीठा नहीं होता ।

विमर्शः-----

किसी के स्वभाव को बदलना सम्भव नहींः---

"मधुना सिञ्चयेन्निम्बं निम्बः किं मधुरायते ।
जातिस्वभावदोषोSयं कटुकत्वं न मुञ्चति ।।"

अर्थः---नीम की जड को मधु से सींचने पर भी क्या नीम मीठा हो सकता है ? कदापि नहीं । कडवापन उसका जाति स्वभाव दोष है, अतः वह उसे नहीं छोड सकता ।

"यश्च निम्बं परशुना यश्चैनं मधुसर्पिषा ।
यश्चैनं गन्धमाल्याद्यैः सर्वस्य कटुरेव सः ।।"
अरुणदत्तः

अर्थः---जो कुल्हाडे से नीम को काटता है, जो मधु और घृत से उसे सींचता है और जो गन्धमाला आदि से उसकी पूजा करता है---उन सबके लिए वह कडवा ही होता है ।

"आम्रं छित्वा कुठारेण निम्बं परिचरेत्तु कः ।
यश्चैनं पयसा सिञ्चेन्नैवास्य मधुरो भवेत् ।।"
(वा.रा.अयो.का. 35.16)

अर्थः---कौन बुद्धिमान् आम को कुल्हाडे से काटकर उसके स्थान पर नीम की सेवा करेगा ? जो आम के स्थान पर नीम को दूध से सींचता है, उनके लिए भी वह नीम मीठा फल देने वाला नहीं हो सकता ।

'द्विधा भज्येयमप्येवं न नमेयं तु कस्यचित् ।
एष मे सहजो दोषः स्वभावो दुरतिक्रमः ।।"
(वा.रा.युद्ध.का. 36.11)

अर्थः---रावण माल्यवान् से कहता है---"मैं बीच में से दो टुकडे हो जाऊँगा, परन्तु किसी सामने झुकूँगा नहीं, यह मेरा स्वाभाविक दोष है और स्वभाव अपरिवर्तनशील होता है ।"

"स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ।।"
(पञ्चतन्त्र---1.280)

अर्थः---उपदेश से कोई किसी के स्वभाव को नहीं बदल सकता । भलीभाँति खौलाया हुआ भी पानी पुनः शीतल हो जाता है ।

इस आधार पर कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में म्लेच्छ लगभग 1000 वर्षों से राज्य कर रहे थे, वे सभी दुष्ट स्वभाव के थे , इसीलिए उन्होंने भारत को गुलाम बनाया, वे कभी सुधर नहीं सकते । इनपर कभी विश्वास न करें ।


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शनिवार, 21 मई 2016

!!!---: आत्मा और परमात्मा :---!!!



!!!---: आत्मा और परमात्मा :---!!!
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"पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेSग्निं पयसि घृतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याSSत्मानं विवेकतः ।।"
(चाणक्य-नीतिः---07.21)

अर्थः----जैसे पुष्प में गन्ध होती है, तिलों में तेल, काष्ठ (लकडी) में अग्नि, दूध में घी और ईख में गुड होता है, वैसे ही शरीर में आत्मा (परमात्मा) विद्यामान है । बुद्धिमान् मनुष्य को विवेक के द्वारा आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए ।

विमर्शः---मानव जीवन पाकर आत्मदर्शन के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए ।
उपनिषदों का सन्देश हैः----
"आत्मा वा अे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ।"
(बृहदारण्यकोपनिषद्---2.45)
अर्थः---अरी मैत्रेयि ! आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए । उसी के सम्बन्ध में सुनना चाहिये, उसी का चिन्तन और मनन करना चाहिए । उसी का ध्यान और उपासना करनी चाहिए ।

कहाँ मिलता है वह परमात्मा ? वह हृदय-मन्दिर में है । उसे ढूँढने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं । जो प्रभु को बाहर खोजते हैं , उनकी अवस्था तो ऐसी हैः---

"सन्त्यज्य हृद्गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये ।
ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्त्वा हस्तस्थकौस्तुभम् ।।"
(महोपनिषद्---6.20)

अर्थः---जो लोग हृदयरूपी गुहा में विराजमान परमेश्वर को छोडकर, दूसरे देवता को ढूँढते फिरते हैं, वे मानो मुट्ठी में पकडी हुई मणि को छोडकर काँच के टुकडे को इधर-उधर ढूँढत-फिरते हैं ।

किसी कवि ने क्या खूब कहा हैः---

"बहिर्भ्रमति यः कश्चित्त्यक्त्वा देहस्थमीश्वरम् ।
सो गृहपायसं त्यक्त्वा भिक्षामटति दुर्मतिः ।।"



अर्थः---जो शरीर में स्थित परमेश्वर को छोडकर बाहर भटकता-फिरता है, वह उस मूर्ख के समान है जो घर की खीर को छोडकर भिक्षा माँगता-फिरता है । ==============================

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रविवार, 15 मई 2016

विधिरहित यज्ञ शत्रु के समान है



!!!---: विधिरहित यज्ञ शत्रु के समान है :---!!!
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"अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः ।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।"
(चाणक्य-नीतिः---08.22)

अर्थः----अन्नहीन यज्ञ राष्ट्र को, मन्त्रहीन यज्ञ ऋत्विज् (पुरोहित) को और दानहीन यज्ञ यजमान को भस्म कर देता है । संसार में (विधिहीन) यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है ।

विमर्शः---यज्ञ कामधेनु है, यज्ञ कल्पवृक्ष है, परन्तु विधि-विधान से न करने पर यज्ञ शत्रु बन जाता है ।

महाराज दशरथ ने भी कहा था---

"विधिहीनस्य यज्ञस्य कर्त्ता सद्य विनश्यति ।"
(वा. रा. बाल. 8.18)
विधिहीन यज्ञ करने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है ।

श्रीकृष्ण जी कहते हैं----

"विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं प्रचक्षते ।।"
(गीता---17.13)

अर्थः----जो शास्त्रविधि से रहित हो, जिसमें लोक-कल्याणार्थ अन्नदान न दिया गया हो, जिसमें वेदमन्त्रों का उच्चारण न किया गया हो, जिसमें यज्ञ करने वालों को दक्षिणा न दी गई हो और अश्रद्धा से किया गया हो, ऐसे यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।

ऐसे यज्ञ लाभकारी नहीं है । विधि-विधान से किए हुए यज्ञ इस लोक में मनुष्य को धन-धान्य से सम्पन्न बनाते हैं और अन्त में मोक्ष में पहुँचाते हैं ।
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