रविवार, 6 मार्च 2016

ज्ञान से बढकर कोई सुख नहीं

!!!---: ज्ञान से बढकर कोई सुख नहीं :---!!!
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"नाSस्ति कामसमो व्याधिर्नाSस्ति मोहसमो रिपुः ।
नाSस्ति कोपसमो वह्निर्नाSस्ति ज्ञानात् पर सुखम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--5.12)

शब्दार्थ :---(कामसमः) काम के समान, (व्याधिः) रोग, (न अस्ति) नहीं है, (मोहसमः) मोह (राग) के समान, (रिपुः) शत्रु, (कोपसमः) क्रोध के समान, (वह्निः) आग, (ज्ञानात् परम्) ज्ञान से बढकर, (सुखम्) सुख ।

अर्थ :---काम (वासना) के समान कोई रोग नहीं, मोह के समान कोई शत्रु नहीं और क्रोध के समान कोई अग्नि नहीं तथा ज्ञान से बढकर संसार में कोई सुख नहीं है ।

विमर्श :----काम (वासना) के समान कोई रोग नहीं है । किसी ने ठीक ही कहा हैः--- "दिवा पश्यति नोलूकः काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोपि कामान्धो दिवा नक्तं न पश्यति ।।" अर्थः---उल्लू को दिन में नहीं दिखता और कौए को रात्रि में दिखाई नहीं देता, परन्तु कामान्ध व्यक्ति ऐसा विचित्र जन्तु है, कि जिसे न दिन में दिखाई देता है और न रात्रि में । "अयं च सुरतज्वालः कामाग्निः प्रणयेन्धनः । नराणां यत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च ।।" अर्थः---प्रेम जिसका ईंधन है और सम्भोग जिसकी ज्वालाएँ हैं, ऐसी वह कामरूपी अग्नि प्रज्वलित हो रही है । इसमें मनुष्य अपने यौवन और धन दोनों की आहुतियाँ दे देते हैं । मोह (राग) के समान कोई शत्रु नहीं है । मोह किसे कहते हैंः-- "मम माता मम पिता ममेयं गृहिणी गृहम् । एदतन्यं ममत्वं यत् स मोह इति कीर्तितः ।।" अर्थः---मेरी माता, मेरे पिता, मेरी पत्नी, मेरा घर---यह और अन्य सब प्रकार के ममत्व (ममता) को मोह कहते हैं । बुद्धि का नाश ही मोह है । यह मोह धर्म और अर्थ दोनों को नष्ट करता है । इससे मनुष्य में नास्तिकता आती है और वह दुराचार में प्रवृत्त हो जाता है । "पाप-पुण्य तीखे मृदुल जैसे कण्टक फूल । अनासक्ति ही पुण्य है मोह पाप का मूल ।।" क्रोधः--- "क्रोधो नाशयते धैर्यं क्रोधो नाशयते श्रुतम् । क्रोधो नाशयते सर्वं नास्ति क्रोधसमो रिपुः ।।" अर्थः---क्रोध धैर्य और शास्त्रज्ञान को नष्ट कर डालता है, क्रोध सब कुछ को दग्ध कर देता है, क्रोध के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है । आत्माज्ञान से बढकर कोई सुख नहींः--- "आत्मज्ञानं परं ज्ञान् ।" (महाभारत, शान्तिपर्व-329.12) आत्माज्ञान सबसे बडा ज्ञान है । वेद में भी कहा हैः--- "यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यत्मैवाभूद्विजानतः । तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनु पश्यत ।।" (यजुर्वेदः--40.7) अर्थः--जिस अवस्था में आत्मज्ञानी ऐसा अनुभव करता है कि समस्त पदार्थों में परमात्मा ओत-प्रोत है, अन्दर-बाहर व्यापक है, तब सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करने वाले उपासक को कैसा मोह और कैसा शोक अर्थात् वह शोक और मोह से ऊपर उठ जाता है । तुलसीदास ने आचार्य चाणक्य के इस श्लोक का भावानुवाद किया हैः--- "मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही । को जग काम नचाव न जेही ।। तृष्णा केहि न कीन्ह बौराहा । केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ।।" (रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)


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