मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

यथायोग्य व्यवहार

!!!---: यथायोग्य व्यवहार :---!!!
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"कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत् ।।"
(चाणक्य-नीतिः---17.2)

अर्थः-----जैसे के साथ तैसा का व्यवहार करना चाहिए । उपकारी के प्रति प्रत्युपकार और हिंसक के प्रति हिंसा का व्यवहार करना चाहिए । ऐसा करने से कोई दोष नहीं लगता, क्योंकि दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार ही उचित होता है ।

विमर्शः----"सबके साथ प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्त्तना चाहिए ।"

उपकारी के प्रति प्रत्युकार करना चाहिए, परन्तु जो हमारा नाश करने पर उताऊ हो, हमारी संस्कृति, सभ्यता और धर्म का ही नाश करने पर तुला हो , ऐसे दुष्टों का तो वध कर देना चाहिए । हमारे इतिहास इस चाणक्य की नीति का प्रयोग नहीं किया गया । यदि किया गया होता तो, भारत 1000 वर्षों तक गुलाम न होता । पृथिवी राज चौहान और महाराणा प्रताप से यही भयंकर भूल हुई थी । आजादी के समय गाँधी और जवाहर से यही भूल हुई ।

"कपटी कुटिल मनुष्यों से जो जग में कपट न करते हैं, ।
वे मतिमन्द मूढ नर निश्चय पराभूत हो मरते हैं ।।"

वेद का आदेश हैः----

मायाभिर्मायिनं सक्षदिन्द्रः ।। (ऋक्. 5.30.6)

हे मनुष्य, तू मायावियों को मायाओं से मार गिरा ।

महाभार, उद्योगपर्व (37.7) में भी कहा है ---

यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यः तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः ।
मायाचारो मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः ।।



अर्थः---जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे, उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए । यह धर्म है । ठगी से व्यवहार करने वाले के साथ ठगी का व्यवहार करना चाहिए और भला व्यवहार करने वाले के साथ भलाई का व्यवहार करना चाहिए ।

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