शनिवार, 9 जुलाई 2016

मनुष्य की परीक्षा

!!!--: मनुष्य की परीक्षा :---!!!
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"यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः ।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।।"
(चाणक्य-नीतिः--5.2)

अर्थः---जैसे सोने के खरे और खोटेपन को जानने के लिए उसकी घिसने, काटने, तपाने और कूटने से परीक्षा की जाती है, वैसे ही मनुष्य की परीक्षा भी दान, शील, गुण और आचरण से होती है ।

विमर्शः---मनुष्य किसे कहते हैं ? आचार्य चाणक्य के अनुसार मनुष्य वह है जो दानी है, शील से सम्पन्न है, सभी शुभ गुणों से सुभूषित है तथा जिसके आचरण श्रेष्ठ है ।

महर्षि दयानन्द ने "मनुष्य" की परिभाषा इस प्रकार से की हैः---

"मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझें, अन्यायकारी-बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्वसामर्थ्य से धर्मात्माओँ की चाहे वे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उनका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहाँ तक हो सके, वहाँ तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे । इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जाएँ, परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवें ।
(स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश)

सब दानों में प्राणदान सबसे बढकर है, जो धर्म, सत्य और न्याय की वेदी पर अपने प्राणों का बलिदान कर सके वही सच्चा मनुष्य है ।

"शीलं परं भूषणम्---शील मनुष्य का सबसे बडा आभूषण है । शील से रहित मनुष्य तो पशु ही है । आचार्य भर्तृहरि जी लिखते हैंः--

"येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।"
(नीतिशतक--12)

जिन मनुष्यों में न विद्या है, न तप है, न दान देने की भावना है, न ज्ञान है, न शील है, न ही जीवन में कोई उत्तम गुण है और न धर्म है, वे पृथिवी पर भाररूप पशु ही है, जो मनुष्य के रूप में विचरा करते हैं ।

मनुष्य की परीक्षा कर्म से होती है । वेद ने कहाः--

"अकर्मा दस्युः ।" (ऋग्वेदः--10.22.8)

कर्म न करने वाला मनुष्य दस्यु (चोर, डाकु) है ।

इसका फलितार्थ यह हुआ कि "सुकर्मा आर्यः" शुभ कर्म करने वाला, आचरणवान् मनुष्य आर्य है, श्रेष्ठ मनुष्य है ।

"गुणैरुत्तुङ्गतां याति नोच्चैरासनसंस्थितः ।
प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुडायते ।।"



अर्थः---मनुष्य गुणों से ही उच्चता प्राप्त करता है, ऊँचे आसन पर बैठने से नहीं । क्या राजभवन के शिखर पर बैठने से कौआ हंस बन सकता है ? कदापि नहीं ।।
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