गुरुवार, 29 जून 2017

धर्म का चिन्तन

"नाहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत् ।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ।।"
(चाणक्य-नीतिः--१२.१८)

अर्थः---बुद्धिमान् मनुष्य को अपने आहार , भोजन के सम्बन्ध में सोच-विचार नहीं करना चाहिए, उसे तो केवल धर्म का ही चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य का आहार तो उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न हो जाता है ।

मंगलवार, 27 जून 2017

बगुले की शिक्षा

बगुले की शिक्षा

"इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः ।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--०६.१६)

मंगलवार, 20 जून 2017

बल

"बाहुवीर्यं बलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली ।
रूपयौवनमाधुर्यं स्त्रीणां बलमुत्तमम् ।।"

अर्थः---भुजबल राजा का बल होता है, ब्रह्मज्ञान और वेद का पाण्डित्य ब्राह्मण का बल होता है, सौन्दर्य , यौवन और मधुरभाषण स्त्रियों का बल होता है ।

श्रीकृष्ण ने महाभारत में जरासन्ध से सही कहा था कि भगवान् ने क्षत्रियों का बल उनकी भुजाओं में भर दिया है---

"क्षत्रियो बाहुवीर्यस्तु ।"

(म.भा.सभा-२१.५१)

क्षत्रियो का बल और पराक्रम उनकी भुजाओं में होता है ।

ब्राह्मण का बल उनकी वाणी में होता है । वह वेद का स्वाध्याय कर दूसरों को भी अमृत पिलाता है ।

नारी का बल उसके रूप, यौवन और मधुरभाषण में होता है ।
आचार्य चाणक्य ने अन्यत्र कहा है---

"यस्य भार्या सुरूपा च भर्तारमनुगामिनी ।
नित्यं मधुरवक्त्री च सा श्रियो न श्रियः श्रियः ।।"

धन को धन नहीं कहते, अपितु जिसकी पत्नी रूपवती, पति के अनुूकूल चलने वाली और सदा मीठा बोलने वाली है, वस्तुतः वही श्री (गृहलक्ष्मी) है ।
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रविवार, 18 जून 2017

समझदार व्यक्ति

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"कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी ।
तथापि सुधयश्चाSSर्याः सुविचार्यैव कुर्वते ।।"
(चाणक्य-नीतिः---१३.१७)

अर्थः--- मनुष्यों को फल कर्मों के अनुसार ही मिलता है और बुद्धि भी कर्मों के अनुसार ही चलती है, फिर भी विद्वान् और सज्जन लोग भली-भाँति सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं ।

भारवि ने किरातार्जुनीयम् (२.३०) में कहा भी है--

"सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।।"

अर्थः---विना सोचे-विचारे, एकाएक किसी कार्य को आरम्भ नहीं करना चाहिए । अविवेक (सम्यक् विचार न करना) विपत्तियों का कारण है । गुणों पर अपने आपको समर्पण करने वाली सम्पत्तियाँ विचारशील पुरुष का स्वयं वरण करती है ।



इस तथ्य को समझते हुए सुधीजन (विद्वान्) एवं आर्यपुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं ।
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मंगलवार, 13 जून 2017

माँ सर्वश्रेष्ठ


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"नाSन्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा ।
न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुः परं दैवतम् ।।"
(चाणक्य-नीति---१७.७)

अर्थः---अन्न और जल के समान कोई दान नहीं है, द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है, गायत्री से बढकर कोई मन्त्र नहीं है और माता से बढकर कोई देवता है ।

अन्न और जल के समान कोई दान नहीं हैः---

"अन्नं वै प्राणिनां प्राणा अन्नमोजो बलं सुखम् ।
तस्मात्कारणात्सद्भिरन्नदः प्राणदः स्मृतः ।।"
(भविष्यपुराण--१६९.३०)

अन्न प्राणियों का प्राण है । अन्न ही ओज, बल और सुख है । इस लिए श्रेष्ठ पुरुष अन्नदाता को प्राणदाता कहते हैं ।

गायत्री से बढकर कोई मन्त्र नहीं हैः---

"गायत्र्या न परं जप्यं गायत्र्या न परं तपः ।
गायत्र्या न परं ध्यानं गायत्र्या न परं हुतम् ।।"


माता से बढकर कोई देवता नहीं हैः---

"नास्ति मातृसमो गुरुः"
(महाभारत, अनुशासनपर्व--१०५.१५)

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रविवार, 4 जून 2017

विचार कर कार्य न करने वाला नष्ट हो जाता है ।

"अनालोक्य व्ययं कर्त्ता ह्यनाथः कलहप्रियः ।
आतुरः सर्वक्षेत्रेषु नरः शीघ्रं विनश्यति ।।"
(चाणक्य-नीतिः--१२.१७)

अर्थः--बिना सोचे-समझे अनाप-शनाप व्यय करने वाला, सहायक न होने पर भी लडाई-झगडा करने वाला और सब वर्णों की श्त्रियों से सम्भोग करने के लिए उतावला मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
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