रविवार, 31 जनवरी 2016

श्रेष्ठ-पदार्थ



"नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम् ।
नास्ति चक्षुःसमं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--5.17)

शब्दार्थः---(मेघसमम) मेघ (बादल) के जल के समान दूसरा कोई, (तोयम्) जल (न-अस्ति) शुद्ध नहीं है, नहीं होता, (च) और, (आत्मसमम्) आत्मबल के समान (शरीर में अथवा पृथिवी पर दूसरा कोई), (बल) बल, (चक्षुःसमम्) आँख के समान शरीर में दूसरा कोई (तेजः) तेज तेजस्वी इन्द्रिय (धान्यसमम्) अन्न के समान दूसरी कोई वस्तु (प्रियम्) प्रिय ।

भावार्थः---मेघजल के समान दूसरा कोई शुद्ध नहीं होता, आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नहीं होता, अर्थात् आत्मबल शरीर और इन्द्रियों के बल से बढकर है । नेत्र के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं है तथा अन्न के समान दूसरा कोई प्रिय पदार्थ नहीं है ।

विमर्शः----मेघ (बादल) का जल शुद्ध माना जाता है । उसे साक्षात् पिया जा सकता है । मेघ का जल पृथिवी पर होने वाले वाष्प (भाप) से बनता है । वाष्प से बनाए जाने वाले जल को तिर्यक्-पात (Distilled) कहते हैं । मेघ में यह क्रिया मनुष्यकृत न होकर प्राकृतिक होने से उसमें तिर्यक्पात न होकर ऊर्ध्वपातन (Sublimation) होता है, अतः मेघजल पृथिवी-जल के दोषों से अलिप्त तथा गुणवत्ता और पवित्रता में बहुत ऊँचा होता है । ऊर्ध्वपातन होने के कारण इसे किसी पात्र में इकट्ठा नहीं किया जा सकता, यह अपात्रस्थ होता है । अतः इसमें पात्र के दोष भी नहीं आते । इन कारणों से मेघ का जल सर्वश्रेष्ठ होता है ।

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बुधवार, 27 जनवरी 2016

पानी पीने का सही तरीका

!!!---: पानी पाने का सही तरीका :---!!!
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"अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बल-प्रदम् ।
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ।।"
(चाणक्य-नीति---8.7)

शब्दार्थः---(अजीर्णे) अपच होने पर, (वारि) जल, (भेषजम्) औषध, (जीर्णे) भोजन के पच जाने पर, (बल-प्रदम्) बल देने वाला है, (च) और (भोजने) भोजन के, (अमृतम्) अमृत के समान गुणकारी है, (भोजनान्ते) भोजन के अन्त में जल का सेवन (विष-प्रदम्) विष के समान हानिकारक है ।

भावार्थः-----अपच में जल पीना औषध के समान है, भोजन पचने पर पानी पीना बलप्रद है, भोजन के मध्य में जल का सेवन अमृत के समान गुणकारी है और भोजन के अन्त में पानी पीना विष के समान हानिकारक है ।

विमर्शःः--जब भोजन न पचे तो भोजन नहीं करना चाहिए, अपितु पानी अधिक पीना चाहिए । यह बात पशुओं से सीख सकते हैं । पशु को थोडी भी तकलीफ होती है तो वे खाना बन्द कर देते हैं । यदि भोजनपच जाए तो डेढ घण्टे के बाद पानी पीना उत्तम रहता है और यह बलदायक होता है । इससे पाचन में कोई बाधा नहीं होती है ।

भोजन के बीच में यदि आवश्यकता पडे तो थोडा पानी पीएँ, अर्थात् एक या दो घुँट । इससे भोजन पचने में आसानी होती है और यह पानी अमृत के समान होता है । यह विशेष ध्यातव्य है कि भोजन के अन्त में भूलकर भी पानी न पिएँ । भोजन के अन्त में पिया गया पानी विष के समान होता है । इससे शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं । जैसे--अपच, एसीडिटी, डायरिया, पेचिश, कोलेस्टोर बढना , खट्टी ड़कारे आना, शुगर बढना आदि-आदि और भी कई बीमारियाँ हो जाती है ।

यह भी ध्यातव्य है कि भोजन से कम-से-कम 40 मिनट पूर्व पानी पी लें , अर्थात यदि आपको 10 बजे भोजन करना हो तो 9.20 पर पानी पी लें ।

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रविवार, 24 जनवरी 2016

कौन किसको छोड देता है ???

!!!---: कौन किसको छोड देता है :---???
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"निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत् ।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाभ्यागता गृहम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--2.17)

शब्दार्थः---(वेश्या) वाराङ्गना, (निर्धनम् पुरुषम्) धनरहित पुरुष को, (प्रजाः) जनता,, (भग्नं न-पम्) पराजित अथवा शक्तिहीन राजा को, (त्यजेत्) त्याग देती है, (खगाः) पक्षिगण, (वीतफलम्) फलरहित, (वृक्षम्) वृक्ष को, (च) और, (अभि-आगताः) अतिथि लोग, (भुक्त्वा) भोजन करके, (गृहम्) घर को ।

भावार्थः---वेश्या निर्धन मनुष्य को, प्रजा पराजित राजा को, पक्षी फलरहित वृक्ष को और अतिथि भोजन करके घर को छोड देते हैं ।

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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

किसकी पहचान किससे ???

!!!---: किसकी पहचान किससे :---!!!
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"आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--3.2)

शब्दार्थः---(आचारः) मनुष्य का आचरण उसके, (कुलम्) कुल-शील को (आख्याति) प्रकट करता है, (भाषणम्) बोल-चाल मनुष्य के, (देशम्) स्थान को, (सम्भ्रमः) मान-सम्मान, (स्नेहम्) प्रेम को, (वपुः) शरीर का संहनन (गठन) ।
भावार्थः---मनुष्य के आचारण से उसके कुल का पता चलता है । उसकी बोल-चाल से उसके देश (जन्मभूमि) का पता चलता है । मान-सम्मान करने से उसके प्रेम का पता चलता है । शरीर की गठिलता को देखने से उसके भोजन का पता चलता है ।

विमर्शः---किसी मनुष्य के शरीर को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि मनुष्य कैसा भोजन करता है । यह कथन मनुष्य के नित्य-प्रति किए जाने वाले भोजन के सम्बन्ध में है, एक या दो दिन के भोजन के सम्बन्ध में नहीं । व्यक्ति सात्विक, स्निग्ध, रुचिकर, और सन्तुलित भोजन करता है, तो उसका शरीर स्वयमेव सुगठित होता है । तामसिक या राजसिक भोजन करने वाले का शरीर बेडौल होता है ।
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मंगलवार, 19 जनवरी 2016

दुर्जन के अंग-अंग में विष होता है





!!!---: दुर्जन के अंग-अंग में विष होता है :---!!!
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"तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके ।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे दुर्जने विषम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--17.8)

शब्दार्थः----(तक्षकस्य) ससाँप के, (दन्ते) दाँत में, (विषम्) विष होता है, (मक्षिकायाः) मक्खी के, (तु) केवल (मस्तके) मस्तक में विष होता है । (वृश्चिकस्य) बिच्छू के, (पुच्छे) पूँछ में, (विषम्) विष होता है और (दुर्जने) दुष्ट मनुष्य के (सर्वांगे) सब अंगों में, (विषम्) विष भरा होता है ।

भावार्थः----साँप के दाँतों में विष (जहर) होता है, मक्खी के सिर विष होता है, बिच्छू की पूँछ में विष होता है---इन सभी के एक-एक अंग में विष होता है, परन्तु दुर्जन के सभी अंगों में विष भरा रहता है ।

विमर्शः---दुर्जन (बदमाश, दुष्ट) से यदि बात करो तो भी परेशानी न करो तो भी सताये जाओगे । इनसे दोस्ती करो तो दुःखी रहोगे और न करो तो भी दुःखी ही रहोगे । इसलिए इनसे सही व्यवहार यह है कि न तो दोस्ती करो और न ही दुश्मनी करो, अपितु इनके प्रति उदासीन रहो, दूर रहो ।

इसलिए कहा गया है कि दुर्जन से सदैव दूर रहना चाहिएः---

"दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्वासकारणम् ।
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदि हलाहलं विषम् ।।"
(हितोपदेशः---1.83)

अर्थः----दुर्जन प्रिय वचन बोलता है, परन्तु इतने से ही उसका विश्वास नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि उसकी जीभ में मधुरता रहती है, परन्तु अन्तःकरण में कपटरूप विष भरा रहता है ।


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रविवार, 17 जनवरी 2016

धीरे धीरे ये सभी कार्य करें।

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"शनैरर्था शनैः पन्थाः शनैः पर्वतमारुहेत् ।
शनैर्विद्या च धर्मश्च व्यायामश्च शनैः शनैः ।।"
(वृद्धचाणक्य---6.14)


अर्थः---धीरे-धीरे धनोपार्जन करना चाहिए, धीरे-धीरे मार्ग में गमन करना चाहिए, धीरे-धीरे पर्वत पर चढना चाहिए, धीरे-धीरे विद्या और धर्म का साधन करना चाहिए तथा धीरे-धीरे व्यायाम करना चाहिए ।
आचार्य शुक्र ने भी कहा हैः--- "क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् । न त्याज्यो तु क्षणकणौ नित्यं विद्यधनार्थिना ।।" (शुक्रनीतिः--3.176) अर्थः----विद्या और धन चाहने वाले को क्षण और कण का त्याग (दो-चार मिनट में क्या हो जाएगा, थोडा-सा है, इससे क्या लाभ होगा, इस बुद्धि सेै उपेक्षा) नहीं करनी चाहिए, अपितु एक-एक क्षण का सदुपयोग करके विद्या की साधना करनी चाहिए और कण-कण जोड कर धन का सञ्चय करना चाहिए । चाणक्य-नीति
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शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

असावधानी से हानि

!!!---: असावधानी से हानि :---!!!
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"आलस्योपहता विद्या परहस्तगताः स्त्रियः ।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम् ।।"
(चाणक्य-नीतिः---5.7)

अर्थः----आलस्य से विद्या नष्ट हो जाती है , दूसरे के पास गई हुई स्त्री नष्ट हो जाती है, बीज की कमी से खेत नष्ट हो जाता है और सेनापति से रहित सेना मारी जाती है ।

विमर्शः----देखिए नारी कैसे नष्ट होती हैः---

"परहस्तगता नारी लेखनी चैव पुस्तकम् ।
न पुनरायान्त्यायान्ति चेद् भ्रष्टा मुष्टा चुम्बिता ।।"

अर्थःः---दूसरे के हाथ में गई हुई नारी, लेखनी और पुस्तक वापस नहीं आती और यदि आती है तो लेखनी भ्रष्टा (टूट-फूटकर) पुस्तक मुष्टा (मुडी-तुडी) और नारी चुम्बिता अर्थात् दूषित होकर ।

नायक के बिना सेना कैसे नष्ट हो जाती हैः---

"अनायका विनश्यन्ति नश्यन्ति बहुनायकाः ।
स्त्रीनायका विनश्यन्ति नश्यन्ति बालनायकाः ।।"

सेनापति से रहित सेना नष्ट हो जाती है, बहुते से नेता वाले नागरिक भी नष्ट हो जाते है (आज भारत की दुर्दशा का मुख्य कारण यही है) और जहाँ बालक (मूर्ख) नेता होते हैं, वे भी नष्ट हो जाते हैं । (भारत की दुर्दशा का एक कारण यह भी है ।)

चाणक्य नीति

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

परमात्मा की खोज


!!!---: परमात्मा की खोज :---!!!
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"पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेSग्निं पयसि घृतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याSSत्मानं विवेकतः ।।"
(चाणक्य-नीतिः--7.21)
अर्थः---जैसे पुष्प में गन्ध होती है, तिलों में तेल, काष्ठ (लकडी) में अग्नि, दूध में घी और ईख में गुड होता है, वैसे ही शरीर में आत्मा (आत्मा और परमात्मा) विद्यमान है । बुद्धिमान् मनुष्य को विवेक के द्वारा आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए ।

मानव-जीवन पाकर आत्मदर्शन के लिए प्रबल पुराषार्थ करना चाहिए । उपनिषदों का सन्देश हैः---

"आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ।" (बृहदारण्कोपनिषद्---2.45)

अरी मैत्रेयि !!! आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए । उसी के सम्बन्ध में  सुनना चाहिए , उसी का चिन्तन और मनन करना चाहिए,उसी का ध्यान और उपासना करनी चाहिए ।

कहाँ मिलता है वह परमात्मा ? वह हृदय-मन्दिर में है । उसे ढूँढने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है । जो प्रभु को बाहर खोजते हैं, उनकी अवस्था तो ऐसी है----

"सन्त्यज्य हृद्गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये ।
ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्त्वा हस्तकौस्तुभम् ।।"
(महोप.6.20)

जो लोग हृदयरूपी गुहा में विराजमान परमेश्वर को छोडकर, दूसरे देवता को ढूँढते फिरते हैं, वे मानो मुट्ठी में पकडी हुई मणि को छोडकर काँच के टुकडे को इधर-उधर ढूँढते-फिरते हैं ।

किसी विद्वान् ने कहा हैः--
"बहिर्भ्रमन्ति यः कश्चित्यक्त्वा देहस्थमीश्वरम् ।
,सो गृहपायसं त्यक्त्वा भिक्षामटति दुर्मतिः ।।"

जो शरीर में स्थित परमेश्वर को छोडकर बाहर भटकता-फिरता है, वह मूर्ख के समान है, जो घर की खीर को छोडकर भिक्षा माँगता-फिरता है ।