!!!---: परमात्मा की खोज :---!!!
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www.vaidiksanskrit.com
"पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेSग्निं पयसि घृतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याSSत्मानं विवेकतः ।।"
(चाणक्य-नीतिः--7.21)
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"पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेSग्निं पयसि घृतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याSSत्मानं विवेकतः ।।"
(चाणक्य-नीतिः--7.21)
अर्थः---जैसे पुष्प में गन्ध होती है, तिलों में तेल, काष्ठ (लकडी) में अग्नि, दूध में घी और ईख में गुड होता है, वैसे ही शरीर में आत्मा (आत्मा और परमात्मा) विद्यमान है । बुद्धिमान् मनुष्य को विवेक के द्वारा आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए ।
मानव-जीवन पाकर आत्मदर्शन के लिए प्रबल पुराषार्थ करना चाहिए । उपनिषदों का सन्देश हैः---
"आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ।" (बृहदारण्कोपनिषद्---2.45)
अरी मैत्रेयि !!! आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए । उसी के सम्बन्ध में सुनना चाहिए , उसी का चिन्तन और मनन करना चाहिए,उसी का ध्यान और उपासना करनी चाहिए ।
कहाँ मिलता है वह परमात्मा ? वह हृदय-मन्दिर में है । उसे ढूँढने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है । जो प्रभु को बाहर खोजते हैं, उनकी अवस्था तो ऐसी है----
"सन्त्यज्य हृद्गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये ।
ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्त्वा हस्तकौस्तुभम् ।।"
(महोप.6.20)
जो लोग हृदयरूपी गुहा में विराजमान परमेश्वर को छोडकर, दूसरे देवता को ढूँढते फिरते हैं, वे मानो मुट्ठी में पकडी हुई मणि को छोडकर काँच के टुकडे को इधर-उधर ढूँढते-फिरते हैं ।
किसी विद्वान् ने कहा हैः--
"बहिर्भ्रमन्ति यः कश्चित्यक्त्वा देहस्थमीश्वरम् ।
,सो गृहपायसं त्यक्त्वा भिक्षामटति दुर्मतिः ।।"
जो शरीर में स्थित परमेश्वर को छोडकर बाहर भटकता-फिरता है, वह मूर्ख के समान है, जो घर की खीर को छोडकर भिक्षा माँगता-फिरता है ।
मानव-जीवन पाकर आत्मदर्शन के लिए प्रबल पुराषार्थ करना चाहिए । उपनिषदों का सन्देश हैः---
"आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ।" (बृहदारण्कोपनिषद्---2.45)
अरी मैत्रेयि !!! आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए । उसी के सम्बन्ध में सुनना चाहिए , उसी का चिन्तन और मनन करना चाहिए,उसी का ध्यान और उपासना करनी चाहिए ।
कहाँ मिलता है वह परमात्मा ? वह हृदय-मन्दिर में है । उसे ढूँढने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है । जो प्रभु को बाहर खोजते हैं, उनकी अवस्था तो ऐसी है----
"सन्त्यज्य हृद्गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये ।
ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्त्वा हस्तकौस्तुभम् ।।"
(महोप.6.20)
जो लोग हृदयरूपी गुहा में विराजमान परमेश्वर को छोडकर, दूसरे देवता को ढूँढते फिरते हैं, वे मानो मुट्ठी में पकडी हुई मणि को छोडकर काँच के टुकडे को इधर-उधर ढूँढते-फिरते हैं ।
किसी विद्वान् ने कहा हैः--
"बहिर्भ्रमन्ति यः कश्चित्यक्त्वा देहस्थमीश्वरम् ।
,सो गृहपायसं त्यक्त्वा भिक्षामटति दुर्मतिः ।।"
जो शरीर में स्थित परमेश्वर को छोडकर बाहर भटकता-फिरता है, वह मूर्ख के समान है, जो घर की खीर को छोडकर भिक्षा माँगता-फिरता है ।
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